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Showing posts from 2015

छद्म सिपाही शब्दों के

ना  दबी हुई आवाज़ है ये, ना क्रांति का आगाज़ है ये, ना गरीबों की ना दंगों की, ना उपरवाले के बन्दों की ये छद्म सिपाही शब्दों के,  बस करें मिलावट छंदों की मूढ़ बनाती जन-जन को, ये भीड़ है कुछ जयचंदों की फनकारों ने फन काढ़ा है, जनता को ललकारा है विष जिनका मिश्री मिश्रित, ये टोली उन सर्प भुजंगों की रक्त-बीज से उदय हुए, नकली पीर-फकीरों की श्वेत शोणित, स्याह ह्रदय, कलम के मुस्टंडे-गुंडों की कुछ माया के पुजारी हैं, कुछ प्यारे दरबारी हैं सत्ता-विहीन की पीड़ा है,  बंद पड़े उन चन्दों की कुछ कटुता के संत्री हैं, कुछ विपक्ष के मंत्री हैं रुदालियों की भीड़ है ये, वैचारिक अध-नंगों की "अखिल"

बंटवारा

धरम पे बांटूं, जात पे बाटूं, रंग-रूप, औकात पे बांटूं बात बात पे देश को बांटूं, दान और जकात पे बांटूं हिंदी तेरा, उर्दू तेरा, कन्नड़-तमिल-तेलगु पे बांटूं हिन्द के बच्चे कहाँ रहे तुम, तुम को तो मैं भाष पे बांटूं गीता-क़ुरान, बाइबिल-पुराण, ईद -दिवाली, गीत-कव्वाली, संस्कृत से संस्कृति तक को, खेल-कूद, त्यौहार को बांटूं गाय, बकरी, सूवर, पिल्ले, जानवरों पे इंसान को बांटूं इंसानों की क्या औकात मेरे आगे? हरा, सफ़ेद, केसरिया, नीला,  रंगों पे भगवान को बांटूं "अखिल"

कहाँ छुपा है वो बिहार

अतीत के गर्त में या इतिहास के पर्त में चलो ढूंढें मिलके हम, के है कहाँ छुपा बिहार कहीं से ढूंढ  लाएं हम, फिर एक  कौटिल्य को के आर्थिक प्रगति में कहीं पिछड़ गया बिहार नालंदा के जीर्ण ध्वंश से उठे समर का बीज वो जो ज्ञान के प्रकाश से करे नष्ट अन्धकार जातियों की बेड़ियाँ जकड चुकी हैं रूह को राग-द्वेष दीनता का मच रहा है हाहाकार फिर से चंद्रगुप्त एक चाहिए प्रदेश को जो जोड़कर हमें करे वैमनस्यता पर प्रहार वर्धमान और बुद्ध का, वीर कुंवर के युद्ध का यात्री और  दिनकर का, अशोक, पाटलिपुत्र का    जननायकों की धरती पे अकाल है नायकों का भीष्म सा छलनी पड़ा, शूरवीर कर्ण का बिहार बिहारियों का प्रण रहे, समय पलट के लाएंगे विश्व के पटल पे फिर से, बुद्ध मुस्कुरायेंगे हो अतीत के गर्त में या इतिहास के पर्त में मिलके हम निकालेंगे, जहाँ छुपा है वो बिहार "अखिल"

राजनीति

मुर्दों की, मुआवजों की, हराम और रायज़ादों की, खेल है सुकून का, ठन्डे पड़े खून का, बोलियाँ लगाते हुए गरीबों की लाश की, राजनीति बिसात है, .... मरते ज़मीर पर उठते जूनून का "अखिल"

तो समझ लीजिये आपको कोई न कोई तो बरगला रहा है

अगर अजान या घंटियों की आवाज़ें आपको असह्य लगे, तो समझ लीजिये आपको कोई न कोई तो बरगला रहा है। अगर अपने पडोसी को बचाने में आपको हिचकिचाहट है, तो समझ लीजिये आपको कोई न कोई तो बरगला रहा है। गाय, कुत्ते, सूवर, बकरे पर आप वाद-विवाद कर रहे हैं, तो समझ लीजिये आपको कोई न कोई तो बरगला रहा है। इंसानियत से बड़ा मजहब अगर आपको कुछ और लग रहा है तो समझ लीजिये आपको कोई न कोई तो बरगला रहा है। इंसानों को मारने का हक़ आपको जायज़ लग रहा है, तो समझ लीजिये आपको कोई न कोई तो बरगला रहा है। हो सके तो बचिए इन गिद्धों से, क्यूंकि आपको लड़ाकर, वो अपने, बस अपने भोज का इंतज़ाम कर रहा है। "अखिल"

सपने में फिर सपनो को देखा, उन सपनो में अपनों को देखा

सपने में सपनो को देखा, एक छत के नीचे अपनों को देखा बैलों की घंटी, पंछियों का गुंजन, रिमझिम बारिश, गीली मिट्टी ओस में नहायी धरती और तीर्ण शिरों पे बिखरे मोती आलस में डूबी हुई सुबह को, आलस दूर भगाते देखा तपती दोपहरी, ठंडी हवा के झोंके, पत्तों का संगीत सुहाना आम के बगीचे के मचान पर, नींद का स्वयं सुलाने आना और फिर सूरज को भी, थककर वापस जाते देखा पंछियों का एक कारवाँ वापस आया, शाम  हो गयी है शायद दूर कहीं से उठा है धुंआ,  चूल्हों की शुरू हुई कवायद ढलते सूरज को पल पल , कल की उम्मीद जगाते देखा  तारे आँगन में उतरे हैं, मानो जश्न मनाने आये गाय, पेड़, घर और इंसानो की शक्ल बनाने आये ना जाने कब आँख लगी, तारों को नहीं जाते देखा फिर सुबह हुई है, सामान बंधा है,  है सबको जल्दी सी, खत्म छुट्टियों से मांगू मैं बस मोहलत थोड़ी सी प्यार भरी नमी थी उनमें, जाने किसकी कमी थी उनमें प्यार भरे उन आँखों को हमने नीर बहाते देखा सपनों में सपने को देखा, शायद मैंने अपनों को देखा फिर वही सुबह हो, फिर वही शाम हो, वो दिन फिर से वापस आ जाए फिर से पापा रोज़ जगाएं, और माँ की लोरी रोज सुलाये दादा ज
ना ही रैन  पड़े  ना ही चैन  पड़े। है अधीर  मन, व्याकुल, पल-पल , प्रत्याशा में नए कल की, अनवरत देखे जाते पल को, पल भेंट चढ़े कोलाहल की। युग सदृश्य ये कठिन दिवस, ना ही रैन  पड़े  ना ही चैन  पड़े। सूरज ताप बढ़ाता जाए, साहस जोश बढाती जाए, ठंडी शीतल नीर की ईक्षा, पल-पल प्यास बढाती जाये। तप्त-जलता  ये  ग्रीष्म दिवस ना ही रैन  पड़े  ना ही चैन  पड़े। थका शरीर, मन स्फूर्त है, रण छोड़ने का नहीं मुहूर्त है, कब कौन से पल में  विजय मिले, ये क्लिष्ट समय बड़ा धूर्त  है। धूर्त, क्लिष्ट, ये हठी दिवस, ना ही रैन  पड़े  ना ही चैन  पड़े। कल के स्वप्न जो आँखों में हैं, वो स्वप्न थकन पे भारी होंगे, जो कठिन परिश्रम आज किया है, वो क्षण-क्षण मंगलकारी होंगे। दुष्कर- तपोवन  सा ये आज दिवस, ना ही रैन  पड़े  ना ही चैन  पड़े। -- अखिल 

प्रकृति

प्रकृति मैं तोड़ रहा था पर्वत-पर्वत, मैं जोड़ रहा था नदी-नहर , जो थोड़ी हलचल तुमने की, बिखर गए वो शहर-शहर मैं बना रहा था स्वर्ग ख़ाक में, और बनाया बाग़ सेहरा में जो थोड़ी गर्मी तुमने दिखाई, भस्म हुआ सब दावानल में जल, थल वायु और गगन में, मैं ढूंढ रहा हूँ तेरा  खज़ाना जो तूने छुपाया, मिल ना पाया, तुच्छ हैं हम तब हमने जाना सदियों से हम लूट रहे हैं, तेरे नाम पे बाँट रहे हैं जो तुमने बांटा थोड़ा सा तो, हुए विलीन हम कंण-कण में  -- अखिल 
हरी  पत्तियां हैं  अनमोल , ये  हरी  पत्तियां , कड़क , चौकोर , ये  हरी  पत्तियां  , भाई  बिछड़े , यार  भी  बिछड़े , और  बिछड़ा  वो  माँ  का  आँचल , बिछड़  गए  सब , बस  ना  बिछड़े , चपल , चितचोर , ये  हरी  पत्तियां चैन  कहाँ  है , ख़ुशी  कहाँ  है , होटों  पे  वो  हंसी  कहाँ  है , जब  देखो  बस  इसकी  धुन  है , मदमाती  ये  हरी  पत्तियां गुणी  बना  दे , धुनि  बना  दे , कइयों  को  ये  खुदा  बना  दे , पीर  भुला  दे , खुशी  भुला  दे , हैं  दमदार  ये  हरी  पत्तियां  हैं  अनमोल , ये  हरी  पत्तियां , कड़क , चौकोर , ये  हरी  पत्तियां -- अखिल

मिट्टी

मिट्टी में पलने वाले , मिट्टी में ही घुलने वाले, काली -स्याह अंतर्मन रख , चका -चौंध में जीने वाले .. नरम , सौंधी खुशबू वाली, मिट्टी को ही धुलते हैं । ये धरा है , वसुंधरा है , सबको सबकुछ देती है जब थक जाये , बोझ उठाये , जीवन पे मिटने वाले , अंत कब्र हो , या जली चिता हो , मिट्टी में ही ढलते हैं  -- अखिल 
घर  वापसी हर  शाम , परिंदों  के  काफिलों  को  वापस  जाता  देख , बेबस  मंन, अक्सर  ये  सोचता  है , "घर  वापसी " ऐसी  हो -- अखिल
चेहरों पे चेहरे चेहरों  पे  लगे  चेहरे , कुछ  दर्द  छुपाने  को , कुछ  ज़र्द  छुपाने  को -- अखिल