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Showing posts from 2020

डर और डरपोक

कुछ डरपोक हैं, गजब के डरपोक हैं डर गए तलवार से तो धर्म छोड़ दी। डर गए अपनो से तो देश तोड़ दी। डर गए शिक्षा से तो बम फोड़ दी। डर गए न्याय से तो कानून मड़ोड दी। कुछ डरपोक हैं, बेशर्म डरपोक हैं डर गए कार्टून से तो गोली चला दी। डर गए भक्तों से तो ट्रेन जला दी। डर गए संस्कृति से तो नींव हिला दी। डर गए रोग से तो जूठन खिला दी। कुछ डरपोक हैं, ढीठ डरपोक हैं डर गए लड़की से तो तेज़ाब फेंक दी। डर गए सतायों से तो सड़क छेक दी। डर गए जीवाणु से तो थूक, छींक दी। डर गए डॉक्टरों से तो उन्हें पीट दी। कुछ डरपोक हैं, मगर कैसे डरपोक हैं? 

बामपंथी पत्रकार और चीन

वो पूरब में तेरा बिरादर है, वो जो खाता चमगादड़ है उसकी लाठी और भैंस हो तुम वो तुम सबका ही फादर है जो छली है आतुर और कादर है तेरे मन में क्यूं उसका आदर है? वो विस्तारवादी और गुलाम हो तुम उसकी रक्त से रंजीत चादर है बिल्ली, कुत्ते, गधे, घोड़े किस नस्ल को खाए? किसे छोड़े? वो मनुष्य भी तो खा जाता है निर्लज्ज ना कभी लजाता है तुम गिद्ध हो पलते लाशों पे तुम प्राणी हो दुर्जन योनि के बामपंथी अभिशाप हो तुम हो माओ, मार्क्स या लेनिन के उसकी डुगडुगी बजाते हो बेशर्म हो ना शर्माते हो लाखों को लील गया जो खल तुम गीत उसी के गाते हो बिकते हो तुम नोटों में, पर क्रान्ति क्रान्ति चिल्लाते हो अर्धसत्य का ढोल पीट पीट, बस भ्रांति भ्रांति फैलाते हो वो जो तेरा बिरादर है, वो जो खाता चमगादड़ है वो जो छली, आतुर और कादर है वो ही तुम सबका फादर है "अखिल"

तृतीय विश्व युद्ध

मानवता का शत्रु दानव जीत रहा है सारे जग को, अमर्यादित शत्रु है, लील रहा है सारे जग को रक्तबीज सा मायावी है पल पल संख्या बढ़ती जाए ढीठ, ढोंगी आघाती है दिवसों दिवस रहे खुद को छुपाए शक्तिशाली देश गिरे हैं, गिरे पड़े हैं उनकी सेना गिरा मनोबल, हारा जीवन, चन्द्र विहीन है लंबी रैना। दरवाजे पर भारत के भी आन पड़ा है घातक दानव अदृश्य, अस्पृश्य, इस दानव से लड़ने में अक्षम है मानव विश्व विजयी के बढ़ते पग को भारत भूमि ने रोका था सिकंदर जैसे नायक को भी पग पग पर हमने टोका था तब बस एक पुरू था रण में दृढ़संकल्प मगर थी मन में विश्व विजयी के रथ को रोका भर शौर्य, प्रताप अपने उद्यम में आज वसुंधरा के बच्चों को फिर से एक ललकार मिली है मानवता के रक्षक बनने की हमको एक पुकार मिली है आज असंख्य पुरू चाहिए लड़ने घर आए दानव से हारेगी मानवता इस रण में जो दूर ना हो मानव मानव से अपनो से दूरी रखना है शत्रु विचित्र है, प्रीति बदले घर रहकर हम लड़ें युद्ध ये ये युद्ध विचित्र है, नीति बदले ये विश्व युद्ध है, सारे भागी ये कर्म यु

गुनाह मेरा है , वो गुनाह मैं तुमपर थोपता हूँ

सरकारों से भी क्या माहौल बदलती हैं, नहीं सरकारों से बस सरोकार बदलते हैं गंगा-जमुनी तहज़ीब बस मेरी बातों में है वरना नफरत बटंती यहाँ खैरातों में है "इनटोलेरेन्स" मेरा है जो मैं तुमपर थोपता हूँ, गुनाह मेरा है , जो मैं तुमपर थोपता हूँ। तुमने वर्षों भोगा है जिस नफरत को, हमने तोड़ा है तेरे घर को जिस गफलत से, उनका नीर निचोड़ जहर एक मकसद से, उनकी सारी जिम्मेदारी, मैं तुमपर थोपता हूं। "अखिल"