छद्म सिपाही शब्दों के

ना  दबी हुई आवाज़ है ये, ना क्रांति का आगाज़ है ये,
ना गरीबों की ना दंगों की, ना उपरवाले के बन्दों की

ये छद्म सिपाही शब्दों के,  बस करें मिलावट छंदों की
मूढ़ बनाती जन-जन को, ये भीड़ है कुछ जयचंदों की

फनकारों ने फन काढ़ा है, जनता को ललकारा है
विष जिनका मिश्री मिश्रित, ये टोली उन सर्प भुजंगों की

रक्त-बीज से उदय हुए, नकली पीर-फकीरों की
श्वेत शोणित, स्याह ह्रदय, कलम के मुस्टंडे-गुंडों की

कुछ माया के पुजारी हैं, कुछ प्यारे दरबारी हैं
सत्ता-विहीन की पीड़ा है,  बंद पड़े उन चन्दों की

कुछ कटुता के संत्री हैं, कुछ विपक्ष के मंत्री हैं
रुदालियों की भीड़ है ये, वैचारिक अध-नंगों की

"अखिल"

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