ना ही रैन  पड़े  ना ही चैन  पड़े।


है अधीर  मन, व्याकुल, पल-पल , प्रत्याशा में नए कल की,
अनवरत देखे जाते पल को, पल भेंट चढ़े कोलाहल की।
युग सदृश्य ये कठिन दिवस,
ना ही रैन  पड़े  ना ही चैन  पड़े।


सूरज ताप बढ़ाता जाए, साहस जोश बढाती जाए,
ठंडी शीतल नीर की ईक्षा, पल-पल प्यास बढाती जाये।
तप्त-जलता  ये  ग्रीष्म दिवस
ना ही रैन  पड़े  ना ही चैन  पड़े।


थका शरीर, मन स्फूर्त है, रण छोड़ने का नहीं मुहूर्त है,
कब कौन से पल में  विजय मिले, ये क्लिष्ट समय बड़ा धूर्त  है।
धूर्त, क्लिष्ट, ये हठी दिवस,
ना ही रैन  पड़े  ना ही चैन  पड़े।


कल के स्वप्न जो आँखों में हैं, वो स्वप्न थकन पे भारी होंगे,
जो कठिन परिश्रम आज किया है, वो क्षण-क्षण मंगलकारी होंगे।
दुष्कर- तपोवन  सा ये आज दिवस,
ना ही रैन  पड़े  ना ही चैन  पड़े।

-- अखिल 

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