सपने में फिर सपनो को देखा, उन सपनो में अपनों को देखा

सपने में सपनो को देखा, एक छत के नीचे अपनों को देखा

बैलों की घंटी, पंछियों का गुंजन, रिमझिम बारिश, गीली मिट्टी
ओस में नहायी धरती और तीर्ण शिरों पे बिखरे मोती
आलस में डूबी हुई सुबह को, आलस दूर भगाते देखा

तपती दोपहरी, ठंडी हवा के झोंके, पत्तों का संगीत सुहाना
आम के बगीचे के मचान पर, नींद का स्वयं सुलाने आना
और फिर सूरज को भी, थककर वापस जाते देखा

पंछियों का एक कारवाँ वापस आया, शाम  हो गयी है शायद
दूर कहीं से उठा है धुंआ,  चूल्हों की शुरू हुई कवायद
ढलते सूरज को पल पल , कल की उम्मीद जगाते देखा 

तारे आँगन में उतरे हैं, मानो जश्न मनाने आये
गाय, पेड़, घर और इंसानो की शक्ल बनाने आये
ना जाने कब आँख लगी, तारों को नहीं जाते देखा


फिर सुबह हुई है, सामान बंधा है,  है सबको जल्दी सी,
खत्म छुट्टियों से मांगू मैं बस मोहलत थोड़ी सी
प्यार भरी नमी थी उनमें, जाने किसकी कमी थी उनमें
प्यार भरे उन आँखों को हमने नीर बहाते देखा

सपनों में सपने को देखा, शायद मैंने अपनों को देखा

फिर वही सुबह हो, फिर वही शाम हो, वो दिन फिर से वापस आ जाए
फिर से पापा रोज़ जगाएं, और माँ की लोरी रोज सुलाये
दादा जी की ज्ञान की बातें हों , और दादीमा की कहानियाँ
उड़नखटोले पे बैठा राजा और मुश्किलों वाली वो पहेलियाँ

आने वाले कल की आस में बीते हुए जिन पलों को भूला
पलों के आते जाते मेले में, गुजरे हुए इक पल को देखा


बिना किसी आहट के फिर से, नींद खुल गयी है मेरी 
बचपन की गर्मियों की गर्माहट छूकर लौटी रूह मेरी
सपने में ही सही मगर फिर से हमने बचपन को देखा
अपनी मिटटी अपना घर और सभी अपनों को देखा

सपने में फिर सपनो को देखा, उन सपनो में अपनों को देखा

अखिल

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