शहर

शहर

मीठी बोली, मीठे लोग, मीठेपन में भरा ज़हर
नकाबों में छुपे चेहरे,  अनजाने चेहरों से भरा शहर

भागती रातें हैं सड़कों पे, थका हुआ सा दोपहर
मदमाती पर नीरस शामें, सोया-अलसाया हुआ सहर

ज़िन्दगी यहाँ बनाने आये, ज़िन्दगी यहीं मिटा बैठे हैं
ज़िंदा कोई बचा है पूछो, ज़िंदा लाशों से भरा शहर


धूल-धुंआ-धुंधलके का आंकड़ा यहीं रोज़ बनाते हैं
कार, बार और कारोबार के आंकड़ों को बढ़ाता शहर

जहर उगलते हुए पर्यावरण का यहीं पाठ पढ़ाते हैं
गाँव, जंगलों और खेतों को रोज़ निगलता हुआ शहर

एक दिन हमको लौटना होगा, वही पुराने आशियाने में
मिटटी, जंगल, पेड़, नदी को हम बनाएंगे अपना घर


"अखिल"

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