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शहर

शहर मीठी बोली, मीठे लोग, मीठेपन में भरा ज़हर नकाबों में छुपे चेहरे,  अनजाने चेहरों से भरा शहर भागती रातें हैं सड़कों पे, थका हुआ सा दोपहर मदमाती पर नीरस शामें, सोया-अलसाया हुआ सहर ज़िन्दगी यहाँ बनाने आये, ज़िन्दगी यहीं मिटा बैठे हैं ज़िंदा कोई बचा है पूछो, ज़िंदा लाशों से भरा शहर धूल-धुंआ-धुंधलके का आंकड़ा यहीं रोज़ बनाते हैं कार, बार और कारोबार के आंकड़ों को बढ़ाता शहर जहर उगलते हुए पर्यावरण का यहीं पाठ पढ़ाते हैं गाँव, जंगलों और खेतों को रोज़ निगलता हुआ शहर एक दिन हमको लौटना होगा, वही पुराने आशियाने में मिटटी, जंगल, पेड़, नदी को हम बनाएंगे अपना घर "अखिल"

हिंदी

मैं मजबूत हिमालय सी, मैं सदा चंचला कोशी हूँ मैं जल जैसी हूँ घुलनशील, पर निर्मलता की दोषी हूँ मैं गंगा सी हूँ पवित्र और मैं यमुना सी काली हूँ मैं मर्यादित इन नदियों सी, अब इन जैसी ही मैली हूँ बंगाल, असम वा हरयाणा, महाराष्ट्र, कश्मीर, तेलंगाना मुझमें घुलती हर भाषाएं, हर रंग में ही मैं निराली हूँ शुद्ध-अशुद्ध शब्दों, व्याकरणों से परे मेरी पहचान है मैं भाषा के माथे की बिंदी, मैं हिंदुस्तान की हिंदी हूँ "अखिल"

विचारणीय

जब बहाये प्रवाह विचारों की, तो सोचो क्या वो विचार हैं विचारणीय? जब प्रहार हो मन पर, तो सोचो क्या प्रत्युत्तर है सराहनीय? जब सम्मान करे कोई आहत, तो सोचो क्या मनुज है वो आदरणीय? जो मित्रता टिकी हो संधियों पर, तो सोचो क्या मित्र वो है विश्वसनीय? "अखिल"