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#Sandesh2Soldiers

#Sandesh2Soldiers हम घरों में दिए जलाते हैं, खुशियां भरपूर मानते हैं घर से विरह की टीस लिए, वो सरहदों पे दीप जलाते हैं लड़ी, पटाखों, फुलझड़ियों से बस एक दिवाली मानते हम वो बारूदों की होली से नित-दिवस दिवाली मानते हैं हाथों में हथियार हैं उनके, फिर भी हम पत्थर बरसाते उनपर शालीनता की हद्द तोड़ हम, उनपर आरोप लगाते हैं उनमें है नर संहार की क्षमता, वज्र सामान प्रहार की क्षमता बाँध स्वयं को धीरज से, वो बस अपनों का वार बचाते हैं मानवाधिकार अधिकार है उसका, जो पहले बस एक मानव हो मानवाधिकार के खेल में हम, पक्ष लेते हैं दानव का हम न्याय दिलाने चलते हैं, मानवता के अपराधी को ध्यान हमें नहीं आता, कटा सर सीमा पर एक सिपाही का हैं वो भी चिराग घरों के अपने, संतानें अपनी माँओं के, बुझा चिराग अपने घर का, वो अनगिनत घर रोशन कर जाते हैं हाँ वो माँओं को छोड़कर, देश का आँचल थामे हैं वो अपने लहू की देकर आहुति, ऋण जन्मभूमि की चुकाते हैं "अखिल"

एक अध्याय कहीं जीवन भर का बस एक पन्ने में सिमटेगा

क्षितिज अनन्त जो लक्ष्य तेरा, तो जीवन भर ही चलना है कुछ छोड़ना है, कुछ तोडना है, कुछ जीवन भर संजोना है बढ़कर रोकेंगी निष्ठाएं, फिर भ्रमित करेंगे वचन असत्य मृगतृष्णा सा छल से, पथ-विमुख तुझे फिर कर देगा सहसा खींचेगी जड़ें तुझे, बारहा सुकून दस्तक देगा पथ पे आते इन बाधाओं को विश्वास स्वयं का भेदेगा कुछ छूटेगा, कुछ टूटेगा, कुछ यादों में भी लिपटेगा एक अध्याय कहीं जीवन भर का बस एक पन्ने में सिमटेगा अखिल

बंजारा

घरौंदे है ना आशियां, के मैं हूँ एक बंजारा भटकती राह है मंज़िल, के मैं हूँ एक आवारा दूर चलता हूँ हदों से, सरहदों से, और किनारों से ठहरता हूँ मैं बस बहते हुए, बहती नदी का हूँ धारा यादें लेकर, यादें देकर, ठहरे पलों की पोटली बांधे बढ़ चला संदेशे लेकर, मैं हूँ एक हलकारा घरौंदा है ना आशियां, के मैं हूँ एक बंजारा भटकती राह है मंज़िल, के मैं हूँ एक बंजारा अखिल

उम्मीद का सूरज

तुम्हें वतन के टुकड़े होने तक, अपना जंग चलाना है, पर उन टुकड़ों से छलक-छलक लहू तेरा ही बिखरेगा तुम नफरत की आग लगाकर, इस वतन को जला न पाओगे, तुम काली रात मनाओगे, पर सूरज उम्मीद का निकलेगा तुम उनकी दहशत पूजोगे, और उनके झंडे लेहराओगे तुम ढूँढोगे याकूब-अफज़ल , पर घर-घर से हमीद ही निकलेगा "अखिल"

खो रहा भगवान है

उसको ही बचाने की वो करते पुकार हैं, जिसको कि कहते हैं सर्व-शक्तिमान है आस्था के खेल में, स्वार्थियों की भीड़ में, पंथों के जूनून में, खो रहा भगवान है आस्था के मंदिर बने हुए हैं शक्ति केंद्र, निर्लज्जता से होता वैभव का सम्मान है वैभव और ऐश्वर्य में, मठों, मंदिरों के गर्भ में, भौतिकों के गर्त में, खो रहा भगवान है साधुओं का वेश है, पर स्वार्थी उद्द्येश्य है, स्याह आत्मा पे ओढ़े गेरुआ परिधान है ना शांत चित्त बुद्ध है, ना ज्ञानी वर्धमान है, गुरुओं के आसनों पे, जाने कौन विद्यमान हैं अहंकारी हैं देवता, असुरों सी क्रूरता, ना रहमति रहीम है, ना दयालु राम है मूर्छित निष्ठा है,  बिखरा विश्वास है, कुंठित आत्मा में खो रहा भगवान है "अखिल"