प्रकृति
प्रकृति मैं तोड़ रहा था पर्वत-पर्वत, मैं जोड़ रहा था नदी-नहर , जो थोड़ी हलचल तुमने की, बिखर गए वो शहर-शहर मैं बना रहा था स्वर्ग ख़ाक में, और बनाया बाग़ सेहरा में जो थोड़ी गर्मी तुमने दिखाई, भस्म हुआ सब दावानल में जल, थल वायु और गगन में, मैं ढूंढ रहा हूँ तेरा खज़ाना जो तूने छुपाया, मिल ना पाया, तुच्छ हैं हम तब हमने जाना सदियों से हम लूट रहे हैं, तेरे नाम पे बाँट रहे हैं जो तुमने बांटा थोड़ा सा तो, हुए विलीन हम कंण-कण में -- अखिल