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Judicial Filth

I am speechless. #Apolitical At least, someone has the guts to take on, the filthiest, the unholiest, the crueslest system of the country. Where, it takes three decades to give justice (rather injustice) to a poor postman, for the alleged theft of INR 50, but gives longest possible ropes to terrorists and politicians. Where "Court Kachehri ke Chakkar" is the smallest warning given by those, who have even very little reach their. We must rally behind Ajeet Bharti, irrespective of our affiliation with his opinions or not. From Gandhi to JP, a lot of revolution has started from the land of Bihar. The deep sleep of lethargic Nanda. Dynasty was challenged by a poor but learned man Vishnugupt (Chanakya) from this land. All of them challenged the mightiest Supremoes of their respective eras. And I hope, the reforms of our rotten judicial system will get a kickstart from the small insignificant guy like Ajeet Bharti, who comes from the same land. This filth need a cleansing, t

डर और डरपोक

कुछ डरपोक हैं, गजब के डरपोक हैं डर गए तलवार से तो धर्म छोड़ दी। डर गए अपनो से तो देश तोड़ दी। डर गए शिक्षा से तो बम फोड़ दी। डर गए न्याय से तो कानून मड़ोड दी। कुछ डरपोक हैं, बेशर्म डरपोक हैं डर गए कार्टून से तो गोली चला दी। डर गए भक्तों से तो ट्रेन जला दी। डर गए संस्कृति से तो नींव हिला दी। डर गए रोग से तो जूठन खिला दी। कुछ डरपोक हैं, ढीठ डरपोक हैं डर गए लड़की से तो तेज़ाब फेंक दी। डर गए सतायों से तो सड़क छेक दी। डर गए जीवाणु से तो थूक, छींक दी। डर गए डॉक्टरों से तो उन्हें पीट दी। कुछ डरपोक हैं, मगर कैसे डरपोक हैं? 

बामपंथी पत्रकार और चीन

वो पूरब में तेरा बिरादर है, वो जो खाता चमगादड़ है उसकी लाठी और भैंस हो तुम वो तुम सबका ही फादर है जो छली है आतुर और कादर है तेरे मन में क्यूं उसका आदर है? वो विस्तारवादी और गुलाम हो तुम उसकी रक्त से रंजीत चादर है बिल्ली, कुत्ते, गधे, घोड़े किस नस्ल को खाए? किसे छोड़े? वो मनुष्य भी तो खा जाता है निर्लज्ज ना कभी लजाता है तुम गिद्ध हो पलते लाशों पे तुम प्राणी हो दुर्जन योनि के बामपंथी अभिशाप हो तुम हो माओ, मार्क्स या लेनिन के उसकी डुगडुगी बजाते हो बेशर्म हो ना शर्माते हो लाखों को लील गया जो खल तुम गीत उसी के गाते हो बिकते हो तुम नोटों में, पर क्रान्ति क्रान्ति चिल्लाते हो अर्धसत्य का ढोल पीट पीट, बस भ्रांति भ्रांति फैलाते हो वो जो तेरा बिरादर है, वो जो खाता चमगादड़ है वो जो छली, आतुर और कादर है वो ही तुम सबका फादर है "अखिल"

तृतीय विश्व युद्ध

मानवता का शत्रु दानव जीत रहा है सारे जग को, अमर्यादित शत्रु है, लील रहा है सारे जग को रक्तबीज सा मायावी है पल पल संख्या बढ़ती जाए ढीठ, ढोंगी आघाती है दिवसों दिवस रहे खुद को छुपाए शक्तिशाली देश गिरे हैं, गिरे पड़े हैं उनकी सेना गिरा मनोबल, हारा जीवन, चन्द्र विहीन है लंबी रैना। दरवाजे पर भारत के भी आन पड़ा है घातक दानव अदृश्य, अस्पृश्य, इस दानव से लड़ने में अक्षम है मानव विश्व विजयी के बढ़ते पग को भारत भूमि ने रोका था सिकंदर जैसे नायक को भी पग पग पर हमने टोका था तब बस एक पुरू था रण में दृढ़संकल्प मगर थी मन में विश्व विजयी के रथ को रोका भर शौर्य, प्रताप अपने उद्यम में आज वसुंधरा के बच्चों को फिर से एक ललकार मिली है मानवता के रक्षक बनने की हमको एक पुकार मिली है आज असंख्य पुरू चाहिए लड़ने घर आए दानव से हारेगी मानवता इस रण में जो दूर ना हो मानव मानव से अपनो से दूरी रखना है शत्रु विचित्र है, प्रीति बदले घर रहकर हम लड़ें युद्ध ये ये युद्ध विचित्र है, नीति बदले ये विश्व युद्ध है, सारे भागी ये कर्म यु

गुनाह मेरा है , वो गुनाह मैं तुमपर थोपता हूँ

सरकारों से भी क्या माहौल बदलती हैं, नहीं सरकारों से बस सरोकार बदलते हैं गंगा-जमुनी तहज़ीब बस मेरी बातों में है वरना नफरत बटंती यहाँ खैरातों में है "इनटोलेरेन्स" मेरा है जो मैं तुमपर थोपता हूँ, गुनाह मेरा है , जो मैं तुमपर थोपता हूँ। तुमने वर्षों भोगा है जिस नफरत को, हमने तोड़ा है तेरे घर को जिस गफलत से, उनका नीर निचोड़ जहर एक मकसद से, उनकी सारी जिम्मेदारी, मैं तुमपर थोपता हूं। "अखिल"

शहर

शहर मीठी बोली, मीठे लोग, मीठेपन में भरा ज़हर नकाबों में छुपे चेहरे,  अनजाने चेहरों से भरा शहर भागती रातें हैं सड़कों पे, थका हुआ सा दोपहर मदमाती पर नीरस शामें, सोया-अलसाया हुआ सहर ज़िन्दगी यहाँ बनाने आये, ज़िन्दगी यहीं मिटा बैठे हैं ज़िंदा कोई बचा है पूछो, ज़िंदा लाशों से भरा शहर धूल-धुंआ-धुंधलके का आंकड़ा यहीं रोज़ बनाते हैं कार, बार और कारोबार के आंकड़ों को बढ़ाता शहर जहर उगलते हुए पर्यावरण का यहीं पाठ पढ़ाते हैं गाँव, जंगलों और खेतों को रोज़ निगलता हुआ शहर एक दिन हमको लौटना होगा, वही पुराने आशियाने में मिटटी, जंगल, पेड़, नदी को हम बनाएंगे अपना घर "अखिल"

हिंदी

मैं मजबूत हिमालय सी, मैं सदा चंचला कोशी हूँ मैं जल जैसी हूँ घुलनशील, पर निर्मलता की दोषी हूँ मैं गंगा सी हूँ पवित्र और मैं यमुना सी काली हूँ मैं मर्यादित इन नदियों सी, अब इन जैसी ही मैली हूँ बंगाल, असम वा हरयाणा, महाराष्ट्र, कश्मीर, तेलंगाना मुझमें घुलती हर भाषाएं, हर रंग में ही मैं निराली हूँ शुद्ध-अशुद्ध शब्दों, व्याकरणों से परे मेरी पहचान है मैं भाषा के माथे की बिंदी, मैं हिंदुस्तान की हिंदी हूँ "अखिल"